हिन्दू ग्रन्थ शिव पुराण में ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग (परमेश्वर ज्योतिर्लिंग) की जिस कथा का वर्णन है वह इस प्रकार है :-
एक समय की बात है भगवान नारद मुनि गोकर्ण नामक शिव के समीप जा बड़ी भक्ति के साथ उनकी सेवा करने लगे। कुछ समय के बाद वही मुनि श्रेष्ठ वहां से गिरिराज विंध्य पर आये और विंध्य ने वहां बड़े आदर से उनका पूजन किया। मेरे पास यहाँ सब कुछ है कभी किसी बात की कमी नहीं होती है इस भाव को मन मैं लेकर विंध्याचल नारद जी के सामने खड़े हो गए। उसकी यह अभिमान भरी बात सुनकर नारद मुनि लम्बी सांस खींचकर चुप चाप खड़े रह गए।
यह देख विंध्य पर्वत ने पुछा आपने मेरे यहाँ कोनसी कमी देखीं है। आपके इस तरह लम्बी सांस के आने का क्या कारण है ?
नारद जो बोले : तुम्हारे यहाँ सब कुछ है फिर भी मेरु पर्वत तुमसे बहुत ऊँचा है। उसके शिखरों का भाग देवता लोक में भी पहुंचा हुआ है। किन्तु तुम्हारे शिखर कभी वहां नहीं पहुँच सकते। ऐसा कहकर नारद जी जिस तरह आये थे उसी तरह वहां से चल दिए परन्तु “विंध्य पर्वत मेरे जीवन को धिक्कार है” ऐसा सोचकर मन ही मन में संतप्त हो उठा।
अब मैं विश्वनाथ भगवान शम्भू की कड़ी तपस्या करूँगा। ऐसा निश्चय करके विंध्य पर्वत प्रभु शिवजी की शरण में आ गए। तदनन्तर जहाँ साक्षात ओंकार की स्थिति है वहां जाकर उन्होंने भगवान् शिव की मूर्ति की स्थापना की और ६ महीने तक निरंतर भोलेनाथ शंकर की आराधना करके शिव जी के ध्यान में तत्पर हो वह अपने तपस्या के स्थान से हिले तक नही, अटल रहे। उनकी ऐसी कठोर और अविचल तपस्या देख पार्वतीपति शंकर ने विंध्याचल को अपना वह स्वरुप दिखाया जो बड़े बड़े योगी मुनियों के लिए भी सुलभ नहीं। और प्रसन्न हो शिव जी ने उससे कहा की विंध्याचल तुम मनोवांछित वर मांगो। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ और तुम्हे तुम्हारी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति कराने आया हूँ।
विंध्य ने प्रभु की स्तुति की और बोले आप सदा ही भक्त वत्सल है। यदि आप मुझ पर प्रसन्न है तो मुझे ऐसी बुद्धि प्रदान करे जिससे सभी कार्य सिद्ध हो सके। भगवान् शिव ने उन्हें उनका मनचाहा वर दे दिया और कहा पर्वत राज विंध्य तुम जैसा चाहो वैसा करो। उसी समय देवता और शुद्ध अंतःकरण वाले ऋषि मुनि वहां पधारे और शंकर जी की पूजा अर्चना करके के पश्चात बोले प्रभु आप यहाँ स्थिर रूप से निवास कर इस स्थान को सदा के लिए पुण्यवान बना दे। उन सभी ऐसी प्रार्थना सुन शिवजी प्रसन्न हो गए और अपने जनकल्याण के लिए उन्होंने उनकी बात स्वीकार कर ली। उनके तथास्तु बोलते ही वहां जो ओंकार लिंग था वह दो स्वरूपों में विभक्त हो गया।
प्रणव में जो सदाशिव थे ओंकार नाम से प्रसिद्ध हुए और मूर्ति में जो शिव ज्योति प्रतिष्ठित हुई उसकी परमेश्वर संज्ञा हुई। इस प्रकार यहाँ ओंकार और परमेश्वर शिवलिंग दोनों भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाले है। उसी समय वहां देवो और ऋषियों ने दोनों शिवलिंग की पूजा की और प्रभि शंकर को प्रसन्न कर बहुत से वर प्राप्त किये। इसके बाद देवता अपने अपने लोको को चले गए और विंध्य ने भी अपने अभीष्ट कार्य को सिद्ध किया और मानसिक वेदना से मुक्ति पायी।
जो कोई भी भगवान् शिव की पूजा अर्चना करता है वह माता के गर्भ में फिर नहीं आता अर्थात जन्म मरण से मुक्त हो मोक्ष प्राप्त कर लेता है। भगवान् शिव के परमेश्वर और ओंकार शिवलिंग के भावनापूर्ण दर्शन से व्यक्ति अपनी मनोकामनाओ की पूर्ति कर लेता है।
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