परमात्मा के तीन स्वरुप शास्त्रों में कहे गए है – सत चित आनंद। आनंद अव्यक्त रूप से है। आनंद भीतर में है परन्तु ढूंढा बाहर ही जाता है। कभी नारी देह में, कभी धन में तो कभी अन्य भौतिक विषयों में।
आनंद तो अपना स्वरुप ही है। जैसे दूध में मक्खन रहता है पर दीखता नहीं। परन्तु दूध से दही बनकर, दही मंथन करने पर मक्खन दिख जाता है। ठीक इसी तरह मनुष्य को मन का मंथन करके आनंद को प्रकट करना है। दूध में जैसे मक्खन का अनुभव नहीं होता उसी प्रकार ईश्वर, जो सर्वत्र है उसका भी अनुभव नहीं होता।
आनंद के अनेक प्रकार तैतरीय उपनिषद् में बताये गए है, जिनमे २ प्रमुख है – 1. साधनजन्य आनंद 2. स्वयंसिद्ध आनंद
साधनजन्य आनंद – जो विषय से प्राप्त हो। साधन या विषय के नष्ट होने पर उस आनंद का भी नाश हो जाता है
स्वयंसिद्ध आनंद – जो किसी साधन विशेष पर निर्भर न हो। अर्थात स्वयं में ही प्रकट हो। जैसे योगी, ऋषि, मुनि आदि आनंदित रहते है यद्यपि उनके पास बाहरी साधन नहीं होते।
जीव और ईश्वर का भेद
जो स्वयं में स्थित हो उसी को परिपूर्ण आनंद है जो कभी नहीं मिटता। यही भेद है जीव और ईश्वर में। ईश्वर परम आनंदित है और जीव आनंद के लिए भटक रहा है। ईश्वर का आनंद उत्पति, स्थिति और विनाश के समय भी एक समान बना रहता है। जैसे श्री राम अयोध्या के राजपद मिलने पर भी आनंदित से और वनवास मिलने पर भी। जैसे श्री कृष्ण १६००० रानियों के साथ बात करते समय के पूर्ण ज्ञान और आनंद में थे और द्वारका व अपने वंश के विनाश के समय भी उनका वही ज्ञान और स्थिति बानी हुई थी। श्री राम और कृष्ण दोनों ही अपने आत्म स्वरुप में हर स्थिति में स्थित रहे, परन्तु मनुष्य का ज्ञान बाहर व्यवहार के समय तो रहता हो शायद, लेकिन स्वयं के साथ वह ऐसा नहीं है। जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में उसका मन अविचल होता रहता है। वह तीनो समय जनम, स्थिति और मरण में सामान भाव से नहीं रहता। उसकी ख़ुशी या आनंद आता जाता रहता है।
क्यूंकि उसका ज्ञान और विवेक उसका साथ हमेशा नहीं देते। जिसका ज्ञान नित्य टिकता है उसी को आनंद रहता है। जीव तब तक दुखी होता रहेगा जब तक वह स्वयं के आत्मा का ज्ञान न कर ले, जो है परमात्मा ही। जब तक हम अपने स्वरुप को पहचान न ले तब तक मन अविचल ही बना रहेगा। मन से परे होती है बुद्धि और उसी में ज्ञान व विवेक ठहरता है। मन के अधीन रहने से ही हम आत्म निर्भर नहीं रह पाते और माया में आसक्त हो विषय भोगो में आनंद को ढूँढ़ते रहते है, परन्तु क्या विषय भोग से कभी न जाने वाला आनंद मिला है कभी किसी को
इस जगत में कुछ भी स्थिर नहीं सब बदलता रहता है, परन्तु जो कभी नहीं बदलता वह ज्ञान ही सत्य है और वही आनंद भी। वेदों का ज्ञान भी हमारी ब्रह्म से एकता का बोध करते है। अहम् ब्रह्मास्मि “मैं ब्रह्म हूँ” जैसे वेद वाक्यों से जीव और ब्रह्म के एकमय रूप का व्याख्यान किया गया है।
नित्य ज्ञान
ईश्वर का सबमें अनुभव करते करते जो उसी में एकरूप हो जाता है वही ईश्वर के परिपूर्ण रूप को जान पाता है। जैसे अगर दूध, दूध ही बना रहे तो उसे कभी मक्खन का अनुभव नहीं होगा। उसके लिए उसको दूध का स्वरुप छोड़ मक्खन के साथ आत्मसात करना होगा ही। इसी प्रकार जीव अगर जीव रूप से चाहेगा तो वह अपने और ईश्वर में भिन्नता ही पायेगा। साधना, भक्ति, ज्ञान, कर्म के द्वारा मंथन कर ही वह ईश्वर रूप, ब्रह्म रूप को प्राप्त होगा। स्वयं ब्रह्म की अनुभूति पा उसी में स्थित होगा। ज्ञानी ज्ञान से परमात्मा का साक्षात्कार करते है, भक्त भक्ति से और एक बार साक्षात्कार होने पर फिर ईश्वर और जीव में कोई अंतर नहीं रहता। ज्ञान मार्ग वैराग्य का मार्ग है। यह मन के कलेशो को समाप्त कर षड्रिपुओं पर विजय पा समाधि का मार्ग है। भक्ति मार्ग प्रेम का मार्ग है। इसमें भक्त हर काम को भक्तिमय रूप से ईश्वर को समर्पित कर करता है। यह समर्पण का मार्ग है।
साधना
साधना का मार्ग जो भी हो कुछ बातों का पालन अवश्य ही करना चाहिए :
- निरंतरता – किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए निरंतर अभ्यास अति आवश्यक है। हर दिन हर समय।
- श्रद्धा – साधना और ईश्वर पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास।
- श्रवण – शास्त्रों का श्रवण, सत्संग सुनना, जिससे ऋषि मुनियों की वाणी को आत्मसात कर सही मार्ग पर बड़ा जा सके।
- मनन – जो भी कुछ सुना उसे केवल सुनने सुनाने तक न रख मन में उतारना। अपने मन द्वारा उसका अन्वेषण करना।
- निद्धिध्यासन – जो सुना, जो समझा अब उसका निश्चय होने पर अभ्यास में लाना और जीवन को बदलना।
- लक्ष्य – अगर साधना का लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति है तो अन्य मनोरथो का त्याग करना चाहिए।
- अंतर्मुखी – साधना का प्रदर्शन नहीं होना चाहिए। बाहरी ध्यान से व्यक्ति बहिर्मुखी होता है। जिस प्रकार अमूल्य धन को व्यक्ति तिजोरी या सुरक्षित स्थान में रखता है, सबकी नज़र में नहीं। उसी प्रकार अपने जप, तप, ज्ञान साधना को भी अंदर ही रखना चाहिए।
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