कामरूप देश में लोकहित की कामना से साक्षात् भगवान् शंकर भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के रूप में अवतीर्ण हुए थे। उनका वह स्वरुप कल्याण और सुख का आश्रय है।
पौराणिक कथा
राक्षस भीम
पूर्वकाल में एक महापराक्रमी राक्षस हुआ था, जिसका नाम भीम था। वह सदा धर्म का विध्वंस करता और समस्त प्राणियों को दुख देता था। वह महाबली राक्षस कुम्भकर्ण के वीर्य और कर्कटी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था तथा अपनी माता के साथ सह्य पर्वत पर निवास करता था। एक दिन समस्त लोको को दुःख देनेवाले भयानक पराक्रमी दुष्ट भीम ने अपनी माता से पूछा – माँ! मेरे पिताजी कहाँ है? मैं यह सब जानना चाहता हूँ। अतः यथार्थ बताओ।
कर्कटी बोली – बेटा! रावण के छोटे भाई कुम्भकर्ण तेरे पिता थे। भाई सहित उस महाबली वीर को श्री राम ने मार डाला। वह आगे बोली मेरे पिता का नाम कर्कट और माता का नाम पुष्कसी था। विराध मेरे पति थे, जिन्हे भी श्री राम ने पूर्वकाल में मार डाला था। अपने प्रिय स्वामी के मारे जाने पर मैं अपने माता पिता के पास रहती थी। एक दिन मेरे माता – पिता अगत्स्य मुनि के शिष्य सुतीक्ष्ण को अपना आहार बनाने के लिए गए। वे बड़े तपस्वी और महात्मा थे। उन्होंने कुपित होकर मेरे माता – पिता को भस्म कर डाला। तब से मैं अकेली होकर बड़े दुःख के साथ इस पर्वत पर रहने लगी। मेरा कोई नहीं रह गया था। मैं असहाय और दुःख से आतुर होकर यहाँ निवास करती थी। उसी समय महान बल – पराक्रम से संपन्न राक्षस कुम्भकर्ण जो रावण के छोटे भाई थे, यहाँ आये। उन्होंने बलात मेरे साथ समागम किया और फिर मुझे छोड़कर लंका वापिस चले गए। तत्पश्चात तुम्हारा जन्म हुआ। तुम भी पिता के ही समान महान बली और अतुल्य पराक्रमी हो। अब मैं तुम्हारा ही सहारा पाकर यहाँ निर्वाह करती हूँ।
कर्कटी की यह बात सुनकर भयानक पराक्रमी वीर कुपित होकर यह विचार करने लगा कि “मैं विष्णु जो कि राम के रूप में अवतीर्ण हुए थे, कैसा व्यवहार करुँ?” इन्होने मेरे पिता को मार डाला। मेरे नाना नानी भी इन्ही के भक्त द्वारा मारे गए। विराध को भी इन्होने मार डाला और इस प्रकार मुझे बहुत दुःख दिया। यदि मैं अपने पिता का पुत्र हूँ तो हरि अर्थात विष्णु को बहुत पीड़ा दूंगा।
भीम का तप और वर
ऐसा निश्चय कर भीम महान तप के लिए चला गया। उसने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए एक हज़ार वर्षो तक घोर तप किया। उसकी तपस्या द्वारा प्रसन्न हो ब्रह्मा जी उसे वर देने के लिए गए। वे बोले – भीम! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, अपनी इच्छा के अनुसार वर मांगो। भीम बोला – पितामह! देवेश्वर! यदि आप प्रसन्न है तो मुझे ऐसा बल दीजिये जिसकी कही तुलना न हो। ब्रह्मा जी ने “तथास्तु” कह वहां से प्रस्थान किया और अपने धाम को लौट गए।
शिवभक्त सुदक्षिण
वह राक्षस भी अभीष्ट वर पाकर प्रसन्नतापूर्वक घर आया और माता को प्रणाम करके बोला – माँ! अब तुम मेरा बल देखो। मैं इंद्र आदि देवताओ और इनकी सहायता करने वाले विष्णु का संहार कर डालूंगा। इस निश्चय के साथ वह इंद्र आदि देवताओ से युद्ध करने के लिए गया और उसकी विजय हुई। उसने इन्द्रसहित सभी देवताओ को स्वर्ग लोक से बाहर निकाल दिया। फिर श्री हरि को पराजित कर उसने पृथ्वी को जीतना आरम्भ कर दिया। सबसे पहले वह कामरूप देश के राजा सुदक्षिण को जीतने के लिए गया। वहां उसका राजा के साथ भयंकर युद्ध हुआ जिसमे उसने शिवभक्त सुदक्षिण को ब्रह्मा जी के वरदान से परास्त कर दिया। भीम ने उनका राज्य अपने अधिकार में कर शिव जी के प्रिय भक्त राजा सुदक्षिण के पैरों मैं बेड़ी डालकर उनके कैद कर लिया। राजा बड़े धर्मात्मा थे, उस विपरीत परिस्थिति में भी उन्होंने भगवान् शिव की आराधना के लिए पार्थिव शिवलिंग स्थापित कर साधना आरम्भ कर दी। उन्होंने गंगा जी की स्तुति की और मानसिक स्नान आदि कर प्रभु शिव की पूजा अर्चना संपन्न की। विधिपूर्वक भगवान् शिव का ध्यान कर वे प्रणवयुक्त पंचाक्षर मंत्र – ॐ नमः शिवाय का जप करने लगे। उन दिनों उनकी पत्नी दक्षिणा भी प्रेमपूर्वक पार्थिव पूजन किया करती थी। वे दम्पति अनन्यभाव से सबका कल्याण करने वाले भगवान् शिव का भजन करते और प्रतिदिन उन्ही की आराधना में लीन रहते। दूसरी ओर राक्षस भीम वरदान के मद से मोहित हो यज्ञकर्म आदि धार्मिक कार्यों का लोप करने लगा और सबसे कहने लगा – सब मुझे ही दो। उसने पूरी पृथ्वी को अपने अधिकार क्षेत्र में कर लिया। वह वेदों, शास्त्रों और पुराणों में विदित धर्म को नष्ट कर, स्वयं को ईश्वर मान सभी उपभोग भोगने लगा।
भीम के वध का उपाय
तब सब देवता और ऋषि अत्यंत पीड़ित हो महाकोशी के तट पर गए और वहां भगवान् शिव की आराधना करने लगे। भगवान् शिव प्रसन्न हो प्रकट हो गए और बोले – तुम्हारा कौन सा कार्य सिद्ध करुँ? मैं तुम पर प्रसन्न हूँ।
देवता ओर ऋषिगण बोले – देव! आप अंतर्यामी है। आपसे कुछ भी छिपा नहीं है। प्रभु! भीम जोकि कर्कटी और कुम्भकर्ण का पुत्र है वह ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त कर सभी को पीड़ित कर रहा है। आप इसका संहार कर हम लोगों पर कृपा करें।
शिव शम्भू बोले – कामरूप देश के राजा सुदक्षिण मेरे परम भक्त है, उनसे जाकर आप लोग मेरा सन्देश कह दें कि वह विशेष रूप से राक्षस के वध के लिए मेरे अर्चना करे। भीम ने उनका भी तिरस्कार किया है। वे मेरे प्रिय भक्त है। मैं उनके लिए दुराचारी राक्षस भीम का वध अवश्य करूँगा।
भीम के वध का उपाय सुनकर देवताओ ने शीघ्र जाकर राजा को सन्देश दिया। फिर वे सब प्रसन्न होकर लौट गए।
भीम का वध और भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग
इधर भगवान शिव भी लोकहित की कामना से और अपने भक्त की रक्षा हेतु उसके निकट जा वहीं गुप्त रूप से रहने लगे। कामरूप नरेश ने भी अनन्य भाव से भगवान् शिव का ध्यान आरम्भ किया। परन्तु इतने में ही भीम इस बात से अवगत हो गया की राजा उसके नाश के लिए तप कर रहे है। इस बात से कुपित हो वह राजा को मारने के लिए निकल पड़ा। वहाँ पहुंचकर पूजन सामग्री और शिवलिंग की स्थापना देख भीम को विश्वास हो गया कि राजा सुदक्षिण उसके संहार के लिए ही अर्चना कर रहे हैं। उसने अत्यंत क्रोध से राजा से पूछा – यह क्या कर रहे हो? राजा ने उत्तर दिया – अपने स्वामी भगवान् शिव का पूजन कर रहा हूँ।
तब भीम के रोष की कोई सीमा न रही। भगवान् शंकर को दुर्वचन कह उसने पार्थिव शिवलिंग पर तलवार से प्रहार किया। वह तलवार शिवलिंग को छू भी नहीं पायी थी और सबके रक्षक भोले नाथ भगवान् शिव प्रकट हो गए और बोले – “मैं भीमेश्वर हूँ और अपने भक्त की रक्षा के लिए प्रकट हुआ हूँ”। ऐसा कहकर शिव जी ने पिनाक से उसकी तलवार के दो टुकड़े कर दिए। फिर दुष्ट भीम ने अपने त्रिशूल से प्रहार किया परन्तु भगवान् शिव ने उसके भी टुकड़े कर उसके प्रयास को विफल कर दिया। पूरा संसार भगवान् शंकर और भीम के मध्य होने वाले युद्ध से क्षुब्ध हो गया। तब नारद जी ने प्रभु से प्रार्थना की कि महेश्वर! आप शीघ्र ही इसका संहार करे। तब उस समय भगवान् शंकर ने हुंकार मात्र से सभी राक्षसों को भस्म कर दिया। भीम का अंत हुआ और देवता, ऋषि व संसार प्रसन्न हुआ। तत्पश्चात सबने भगवान् शंकर से प्रार्थना की – “हे प्रभु ! यह स्थान बड़ा निंदनीय माना जाता है। यहाँ आने वालों को प्रायः दुःख ही भोगना पड़ता है। अतः आप यही निवास करें और अपने दर्शन से सबका कल्याण करें।” इस प्रकार प्रार्थना करने पर भक्तवत्सल भगवान् शिव वही स्थित हो गए और भीमाशंकर एवं भीमेश्वर के नाम से विख्यात हुए।
प्रसिद्ध धार्मिक केंद्र भीमाशंकर मंदिर महाराष्ट्र में पुणे से करीब 100 किलोमीटर दूर स्थित सह्याद्रि नामक पर्वत पर है। यह स्थान नासिक से लगभग 120 मील दूर है। आप यहां सड़क और रेल मार्ग के जरिए पहुंच सकते हैं।
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